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भारतीय कला जीवन मूल्यों के साथ-साथ सामाजिक चेतना की साक्षी रही है- डॉ0 हरि प्रसाद दुबे

भारतीय कला जीवन मूल्यों के साथ-साथ सामाजिक चेतना की साक्षी रही है- डॉ0 हरि प्रसाद दुबे

2019-02-12 22:46:18
भारतीय कला जीवन मूल्यों के साथ-साथ सामाजिक चेतना की साक्षी रही है- डॉ0 हरि प्रसाद दुबे

राज्य संग्रहालय में आयोजित कला अभिरूचि पाठ्यक्रम में ‘भारतीय कला में संस्कृति के विविध संदर्भ’ विषय पर व्याख्यान
लखनऊः-राज्य संग्रहालय में 30 जनवरी से 16 फरवरी 2019 तक आयोजित होने वाले कला अभिरुचि पाठ्यक्रम में आज मुख्य वक्ता के रूप में अयोध्या के डॉ0 हरि प्रसाद दुबे ने भारतीय कला में संस्कृति के विविध संदर्भ विषय के माध्यम से भारतीय कला में जीवन मूल्यों के साथ साथ संस्कृति के विविध तत्वों को सहजता के साथ व्याख्यायित किया। उन्होंने बताया कि भारतीय कला जीवन मूल्यों के साथ-साथ सामाजिक चेतना की साक्षी रही है ।
कला के मांगलिक प्रतीक नदियों के घाट भारतीयता के प्राण तत्व हैं, पशु-पक्षियों के जीवन में भी कलात्मक सौंदर्य बोध समाहित हैं। किसी देश की पहचान सत्ता से नहीं बल्कि संस्कृति, परंपरा, कला, ललित कला और आस्था एवं पर्व से होती है। कला को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने बताया की कला खरीदी और बेची नहीं जा सकती है, यह आत्मीयता के रंग में डुबोती है, कला के सच्चे पारखी लघुता में विराट का भाव पाते हैं, कला के आनंद के लिए दृष्टिकोण ही प्रथम सोपान होता है ।
इस क्रम में उन्होंने भारतीय कला में प्रयुक्त मंागलिक प्रतीक स्वास्तिक, देव प्रतिमा की भंाति पूज्यनीय शंख, सदा दूसरों को देने की इच्छा रखने वाले वृक्ष, मानव जीवन के आधार के रूप में विद्यमान जल, संस्कृति के प्रवाह के रूप में निरंतर बहने वाली नदियां, नदियों के किनारे इतिहास के साक्षी के रूप में मौजूद घाटों की विस्तृत चर्चा की। उन्होंने आगे बताया कि भारत की सांस्कृतिक पहचान घाटों से जुड़ी हुई है। भारत के पौराणिक अतीत के साथ इतिहास का भी दुर्लभ दर्शन घाटों में होता है, यही घाट हमारी गुमनाम पाती हैं। धरोहर स्थल के रूप में इनके संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता है। संस्कृति की शिला पर घाट हर युग में स्वर्णिम हस्ताक्षर करते हैं, उनका सांस्कृतिक सौंदर्य बरबस सम्मोहित कर लेता है। उन्होंने अंत में कहा कि करुणा के बिना कोई संस्कृति कोई भारतीय कला परिपक्व नहीं होती। हमारी कसौटी पर वही कला खरी उतरेगी, जिसमें कुछ चिंतन हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा जीवन की सच्चाई हो। वास्तव में कलाकार पैदा होते हैं बनाए नहीं जाते। कलाकार का वास्तविक लक्ष्य मानव समझ को विकसित करना है, कला की अभिव्यक्ति कभी घटती नहीं है हालांकि कला की अनुभूति करना एक चुनौती है। लेकिन कई अन्य चीजों की तरह इसके लिए कुछ अभ्यास की आवश्यकता होती है, इसमें प्रगति करने पर कौशल और अंतर्दृष्टि में सुधार होता है।
कार्यकम का संचालन श्रीमती रेनू द्विवेदी सहायक निदेशक, पुरातत्व (शैक्षिक कार्यक्रम प्रभारी) ने किया। कार्यकम के अन्त में डाॅ0 आनन्द कुमार सिंह, निदेशक उ0प्र0 संग्रहालय निदेशालय ने भारतीय कला में संस्कृति के विविध संदर्भ विषय पर अत्यन्त सजीवता के साथ विद्यार्थियों के मध्य दिये गये व्याख्यान के लिए विद्वान वक्ता को धन्यवाद ज्ञापन करने के साथ-साथ प्रतिभागियों तथा अतिथियों एवं पत्रकार बन्धुओं को धन्यवाद ज्ञापित किया।


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