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चूक न होती तो बहुत पहले बन गया होता कोरोना की दवाई

चूक न होती तो बहुत पहले बन गया होता कोरोना की दवाई

2020-04-12 23:42:38
चूक न होती तो बहुत पहले बन गया होता कोरोना की दवाई

साल 2002 में चीन के ग्वांझो प्रांत में एक अनजाने से वायरस की वजह से एक महामारी फैली जिसे वैज्ञानिकों ने सार्स (SARS) का नाम दिया था। सार्स (SARS) का मतलब था सीवियर एक्यूट रेसपिरेटरी सिंड्रोम यानी ऐसी बीमारी जो सांस की तकलीफ का कारण बनती है।
बाद में वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि सार्स बीमारी कोरोना वायरस की वजह से होता है और ये जानवरों से शुरू होकर इंसानों तक पहुंच गया। उस समय ये वायरस कुछ ही महीनों में 29 देशों में फैल गया है, 8000 से ज्यादा लोग संक्रमित हुए जबकि 800 से ज्यादा लोगों की जान गई।
तब पूरी दुनिया ये जानना चाह रही थी कि इसका टीका कब तक तैयार हो जाएगा और यूरोप, अमेरिका और एशिया के दर्जनों वैज्ञानिकों ने बहुत तेजी से इसका टीका तैयार करने पर काम शुरू कर दिया था। कई उम्मीदवार उभरे थे, उनमें से कुछ ने तो यहां तक कहा कि वे क्लीनिकल ट्रायल के तैयार हैं।
लेकिन तभी सार्स महामारी पर काबू पा लिया गया और कोरोना वैक्सीन पर जारी तमाम रिसर्च बंद हो गए। कुछ सालों बाद 2012 में एक और जानलेवा कोरोना वायरस मर्स-कोव (मिडल ईस्ट रेसिपेरिटरी सिंड्रोम) का प्रकोप हुआ। ये ऊंटों से इंसानों तक पहुंचा था।
तब भी बहुत सारे वैज्ञानिकों ने इन रोगाणुओं के खिलाफ टीका तैयार करने की जरूरत एक बार फिर से दोहराई। आज लगभग 20 साल बाद जब नए कोरोना वायरस SARS-Cov-2 ने तकरीबन 15 लाख लोगों को संक्रमित कर दिया है तो एक बार फिर दुनिया में ये सवाल पूछा जाने लगा है कि इसका टीका कब तक तैयार हो जाएगा।
कोरोना वायरस के अतिक्रमण की पिछली घटनाओं से हम सबक क्यों नहीं ले पाए जबकि ये मालूम था कि इसकी वजह से कोविड-19 जैसी जानलेवा बीमारी हो सकती है? और टीका तैयार करने वाले रिसर्चों को आगे क्यों नहीं बढ़ाया गया।
लेकिन अमेरिका के ह्यूस्टन में वैज्ञानिकों की एक टीम ने कोरोना वायरस के खिलाफ टीका तैयार करने का काम नहीं छोड़ा था। साल 2016 में वे लोग अपनी कोशिश में कामयाब हो गए और कोरोना वायरस का वैक्सीन तैयार कर लिया गया।
बेयलर कॉलेज ऑफ मेडिसीन के नेशनल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसीन की को-डायरेक्टर डॉक्टर मारिया एलीना बोट्टाज्जी ने बताया, "हमने ट्रायल्स खत्म कर लिए थे और वैक्सीन के शुरुआती उत्पादन प्रक्रिया के अहम पड़ाव से भी गुजर चुके थे।"
डॉक्टर मारिया एलीना बोट्टाज्जी टेक्सास के बच्चों के हॉस्पिटल के वैक्सीन डेवलपमेंट सेंटर की को-डायरेक्टर भी हैं। वो कहती हैं, "फिर हम एनआईएच (यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ) के पास गए और पूछा कि 'हम इस वैक्सीन को क्लीनिक तक जल्द पहुंचाने के लिए क्या कर सकते हैं?' और उन्होंने जवाब दिया, 'देखिए, फिलहाल हमें इसे दिलचस्पी नहीं' है।"
ये टीका साल 2002 में फैली सार्स महामारी के खिलाफ तैयार किया गया था। चूंकि जिस देश (चीन) में इसकी शुरुआत हुई थी, उस पर वहां काबू पा लिया गया था, इसलिए इस वैक्सीन पर रिसर्च कर रहे वैज्ञानिक और पैसा जुटाने की स्थिति में नहीं रह गए थे।
ऐसा नहीं है कि केवल कोरोना वायरस के टीके की खोज का काम रोक दिया गया था। दुनिया भर के दर्जनों वैज्ञानिकों को अपनी रिसर्च सिर्फ इसलिए रोक देनी पड़ी कि उसमें लोगों की दिलचस्पी कम हो गई थी और रिसर्च के लिए पैसा जुटाना मुश्किल हो गया था।
यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिलवेनिया में माइक्रोबॉयलॉजी की प्रोफेसर सुजैन वीज कहती है कि सात-आठ महीने के बाद जब ये महामारी खत्म हो गई तो लोगों, सरकारों और दवा कंपनियों की कोरोना वायरस की स्टडी में दिलचस्पी तुरंत खत्म हो गई।
वो कहती हैं, "साथ ही सार्स का असर एशिया में ज्यादा देखने को मिला। कनाडा में इसके संक्रमण के कुछ मामले मिले थे पर ये यूरोप तक नहीं पहुंच पाया जैसा कि इस बार कोरोना वायरस के साथ हुआ। इसके बाद मर्स वायरस आया लेकिन इसका असर मध्य पूर्व तक ही सिमटा रहा। फिर कोरोना वायरस और उसमें लोगों की दिलचस्पी खत्म होती चली गई। कुछ दिनों पहले तक यही स्थिति बनी रही। और मुझे सचमुच ऐसा लगता है कि हमें बेहतर रूप से तैयार रहना चाहिए था।"
सार्स और मर्स के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि ये दोनों कोरोना वायरस के खतरे से आगाह करने वाली ऐसी चेतावनी थी, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए था और इसलिए इन पर रिसर्च जारी रखा जाना चाहिए था।
हालांकि डॉक्टर मारिया एलीना बोट्टाज्जी का वैक्सीन इस समय संक्रमण में प्रचलित कोरोना वायरस के लिए नहीं था बल्कि ये सार्स बीमारी के लिए था। लेकिन विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि अगर वो वैक्सीन तैयार हो जाता भविष्य की महामारियों के लिए नए टीके का विकास ज्याजा तेज रफ्तार से किया जाना मुमकिन था।
येल यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रोफेसर जैसन स्क्वॉर्ट्ज कहते हैं कि कोविड-19 की महामारी के खिलाफ तैयारियां साल 2002 की सार्स महामारी के वक़्त ही शुरू हो जानी चाहिए थी। उन्होंने कहा, "अगर हमने सार्स वैक्सीन प्रोग्राम बीच में नहीं छोड़ा होता तो नए कोरोना वायरस पर रिसर्च करने के लिए हमारी पास काफी बुनियादी स्टडी उपलब्ध होती।"
नया वायरस Sars-Cov-2 उसी कोरोना परिवार का विषाणु है जिसने साल 2002 में सार्स महामारी को जन्म दिया था। डॉक्टर मारिया एलीना बोट्टाज्जी कहती हैं कि दोनों ही विषाणु आनुवांशिक रूप से 80 फीसदी समान हैं। "चूंकि उनकी वैक्सीन ने मंजूरी की शुरुआती प्रक्रिया पूरी हो गई थी, इसलिए नए कोरोना वायरस के खिलाफ ये जल्दी ढल सकता था।"
"हमारे पास इसके उदाहरण होते कि ऐसे वैक्सीन कैसा बर्ताव करते हैं और भले ही ये विषाणु अलग-अलग हों लेकिन वे आते तो एक वर्ग से हैं। हमारे पास इस बात का अनुभव होता कि समस्या की जड़ कहां हैं और उसे कैसे हल किया जा सकता है। क्योंकि हमने पहले ये देखा था कि क्लिनिकल ट्रायल की शुरुआत में सार्स वैक्सीन कैसे प्रतिक्रिया कर रहा था और हमें ये उम्मीद है कि नई वैक्सीन भी तकरीबन उसी तरह काम करती।"
अगर ये सभी जानकारियां अभी मौजूद हैं तो उस वक़्त कोरोना वायरस पर चल रहे रिसर्च क्यों रोक दिए गए? विशेषज्ञों का कहना है कि हर बात इस बात पर निर्भर करती है कि रिसर्च के लिए कितना पैसा मिल रहा है।
डॉक्टर मारिया कहती हैं, "हम सौ डॉलर या एक अरब डॉलर की बात नहीं कर रहे हैं। हम महज 30 से 40 लाख डॉलर की बात कर रहे हैं। 15 लाख डॉलर में हम इंसानों पर इस वैक्सीन के असर की क्लिनिकल स्टडी पूरी कर लेते। लेकिन उन्होंने ऐसे वक़्त में हमारा काम बंद कर दिया जब हम दिलचस्प नतीजों तक पहुंचने के क़रीब थे।
बॉयोटेक कंपनी आरए कैपिटल के निदेशक और वीरोलॉजिस्ट (विषाणु विशेषज्ञ) पीटर कोलचिंस्की बताते हैं, "चूंकि इस वैक्सीन के लिए कोई बाजार नहीं था, इसलिए इसके लिए पैसा देना बंद कर दिया गया। हकीकत तो ये है कि जब एक बाजार होता है तो इसका एक हल भी होता है। आज हमारे पास कोरोना वायरस के लिए सैंकड़ों वैक्सीन हैं लेकिन ये सभी सुअर, मुर्गे-मुर्गी और गाय जैसे जानवरों के लिए हैं।"
ये वो वैक्सीन हैं जो पॉल्ट्री और पालतू पशुओं को बीमारी से बचाने के लिए हैं क्योंकि इनका करोड़ों डॉलर का बाजार है। लेकिन इसके बावजूद ये सोचा गया कि इंसानों को अपना शिकार बनाने वाली कोरोना वायरस की महामारी पर काबू किया जा सकता है।
पीटर कोलचिंस्की कहते हैं, "समस्या ये है कि किसी भी कंपनी के लिए ऐसा कोई प्रोडक्ट तैयार करना एक खराब कारोबारी पेशकश है जिसका दशकों तक या फिर शायद कभी नहीं इस्तेमाल किया जाएगा। ये उस तरह की चीज है जिसपर सरकारों को निवेश करना चाहिए। अगर ये उनकी प्राथमिकता में होता तो मुझे कोई शक नहीं कि सरकारी एजेंसियों ने सार्स महामारी के वैक्सीन पर चल रही रिसर्च को पैसा देना जारी रखा होता। और तब शायद हम कोविड-19 के लिए बेहतर रूप से तैयार होते।"
आज का सच तो यही है कि हमें कोविड-19 के लिए वैक्सीन चाहिए। इस बात की संभावना कम ही है कि आने वाले 12 से 18 महीनों में शायद ही ये तैयार हो पाए।
और तब तक कोरोना वायरस की महामारी पर शायद काबू ही पा लिया जाए। डॉक्टर मारिया और उनकी टीम 2016 में तैयार किए गए वैक्सीन के अपडेट पर काम कर रहे हैं ताकि कोविड-19 का नया टीका तैयार किया जा सके। लेकिन अभी भी रिसर्च के लिए पैसा जुटाने की मशक्कत उठानी पड़ रही है।
वो कहती हैं, "2016 की वैक्सीन के अपडेट के काम को तेज करने के लिए पैसा मिला है। नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ ने भी चार लाख डॉलर की रकम दी है। लेकिन हमें इसे और तेज करने के लिए ज्यादा पैसे की जरूरत है। लेकिन ये पूरी प्रक्रिया बहुत निराश करने वाली है।"


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