वीरांगना मृणाल गोरे चली गयी, राजनीति को वीरान कर| लोहिया की चेली, मधु लिमये की साथी और जेपी की सहसंघर्षिणी की मौत पर जब यूपी के समाजवादीयों (अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे) को मैंने (17 जुलाई 2012) सूचित किया कि मृणाल गोरे का निधन हो गया, शोक सभा हो, तो उधर से जवाब मिला, “कौन थी वे?” अतः अब जानिए क्या थीं वे|
जब मोरारजी देसाई ने श्रीमती मृणाल गोरे को 23 मार्च 1977 में केन्द्रीय मंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा था, तो मुम्बई की इस अड़तालिस-वर्षीया सोशलिस्ट सांसद ने अस्वीकार कर दिया था। कारण दिया था कि वे जनता के बीच रहना और काम करना चाहती हैं। सांसद मधु लिमये ने भी ऐसा ही किया। तब जनता पार्टी प्रधानमंत्री ने अन्य लोहियावादी सांसद (राज नारायण और जार्ज फर्नाण्डिस) को काबीना में शामिल किया था।
उस मंगलवार को मुम्बई के निकटवर्ती वसई नगर में निधन के दिन (17 जुलाई 2012) भी मृणाल गोरे व्यस्त थीं| अमरीकी राष्ट्रपति के निर्वाचन में रुचि लेती रहीं। हालांकि चैरासी वर्ष की आयु में स्वास्थ्य क्षीण हो गया था। अंग्रेजी और पुर्तगाली साम्राज्यवादियों (गोवा में) से भिड़ने वाली, फिर इन्दिरा गांधी के आपातकालीन राज में सत्रह माह जेल भुगतने वाली, मृणाल ताई (मराठी में ताई का मतलब बड़ी बहन) उस हरावल दस्ते में थीं जिसने 1946 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी तोड़कर सोशलिस्ट पार्टी बनाई थी। कानपुर सम्मेलन में राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव आदि ने तय किया था कि नेहरू-कांग्रेस पूंजीपतियों की राह पर चली है। अतः समाजवादियों की पगडण्डी अलग हो। मुम्बई में तब अशोक मेहता, यूसुफ मेहर अली, मधु लिमये के साथ मृणाल गोरे भी सोशलिस्ट पार्टी के साथ चली गईं थीं।
भ्रूण की लिंग परीक्षा को जघन्य अपराध करार देने वाले कानून को मृणाल गोरे ने महाराष्ट्र विधान सभा में 1972 में रचाया। तब वे मुख्य विपक्ष की नेता थीं और शरद पवार कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। उस समय के विधायकी व्यवहार पर टिप्पणी करते हुए शरद पवार ने कहा था कि “मृणाल ताई का नेतृत्व मर्यादा और संयम को सदन में संजोता था। विपक्ष द्वारा पूछे प्रश्न, उठाये गये मुद्दे और वाद विवाद का स्तर अपने में मिसाल पेश करता था|” कांग्रेसी मंत्री तक अध्ययन ज्यादा करते थे ताकि सदन में फजीहत न हो। मृणाल गोरे का सात दशकों वाला जीवन समाजवादी संघर्ष तथा सियासी वीरगाथा का अनुपम अध्याय है। अपनी बाली उम्र में ही वे महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आन्दोलन में शामिल हो गईं थीं। अपनी एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई आधे में ही छोड़कर वे जनसंघर्षों में आ गईं। उनके पति केशव गोरे के साथ जेलयात्रा उनकी आदत बन गई। बजाय डाक्टर बनने के वे दुखियारों की सेविका बन गयीं। पश्चिमी मुम्बई के उपनगर गोरेगांव में, जहां उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी गाय पालने तथा चना बेचने वाले डेरा डाले हैं, पानी दिलवाने का काम मृणाल गोरे ने किया। सप्ताह में तब केवल एक घंटे के लिए पेय जल आता था। वहाँ के निवासी आज उन्हें आज भी पानीवाली ताई के नाम से पुकारते हैं। अब मंहगाई तो कुलाचे भर रही है मगर तब मुम्बई की साधारण गृहणियों को संगठित कर मृणाल गोरे ने बेलन-मार्च आयोजित किया था। चर्चगेट से आजाद मैदान तक गृहणियां थाल पीटती, बेलन लहराती महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ विशाल जुलूस निकाल कर दाम बांधो की माँग कर रही थी। शीघ्र ही यह संघर्ष विंध्यांचल पार कर हिन्दी पट्टी में फैल गया। लोहिया की अर्थनीति कि उत्पाद की लागत तथा विक्रय मूल्य में एक और डेढ़ का अनुपात होना चाहिए ही मृणाल गोरे का सूत्र रहा।
गोवा मुक्ति आन्दोलन लोहिया ने जून 1946 में शुरू किया था, मगर यह क्षेत्र दिसम्बर 1971 तक पुर्तगाली साम्राज्य का दमन भुगतता रहा। मृणाल गोरे ने अपने पति के साथ 1955 में गोवा सत्याग्रह में भाग लिया, पणजी में जेल गईं। उनके साथ मधु लिमये, सेनापति बापट आदि भी थे। जब 1956 में भाषावार राज्य बनाने का जनवादी अभियान चला तो मराठीभाषी क्षेत्रों को मिलाकर संयुक्त महाराष्ट्र के लिए संघर्ष छिड़ा था। मृणाल गोरे उसकी पुरोधा थीं। मुंबई के फ्लोरा फाउन्टेन में एक रैली में पुलिस की गोलाबारी में मरते-मरते बच गईं।
पिछली सदी में महाराष्ट्र में एक आम अवधारणा बन गई थी। जहाँ कहीं रिश्वतखोरी, सार्वजनिक क्षेत्र की लूट, मजलूमों का दमन, पुलिसिया अत्याचार, महिलाओं का प्रताड़न होता था, मृणाल ताई रणचण्डी बनकर आ जाती थीं। उनके आगमन की खबर से ही स्थिति सुधर जाती थी। मसलन अमरीकी बिजली कम्पनी एनरोन के खिलाफ जनयुद्ध की नेता थीं मृणाल गोरे। एनरोन कम्पनी से कांग्रेस और शिवसेना द्वारा अपार सुविधा राशि हथियाने का आरोप लगता रहा। बाद में एनरोन कम्पनी भारत से खदेड़ दी गई। अमरीकी सरकार ने अपनी इस कम्पनी को काली सूची में डाला और इसके आला अफसरों पर जालसाजी, गबन आदि का मुकदमा चलाया। मगर तबतक महाराष्ट्र के बिजली उपभोक्ताओं को करोड़ों की क्षति हो चुकी थी। नर्मदा बांध के कारण विस्थापित ग्रामीणों की मृणाल गोरे नायक रहीं, मेघा पाटकर अपने को मृणाल की अनुगामिनी कहने में फख्र महसूस करती हैं। उसी वक्त की बात है एक अंग्रेजी दैनिक का साधारण कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे मराठीजन को उकसा रहा था। मुम्बई से गैरमराठियों को भगा देने का अभियान शुरू कर चुका था। मराठीभाषी मृणाल गोरे ने जमकर शिव सेना के जहर को फैलने से रोकने का संघर्ष किया। हिन्दी तथा अन्य प्रदेशों से आए भारतीयों की मदद उन्होंने की थी। फिर आया चौथी लोकसभा का निर्वाचन (1967) जब दक्षिण मुम्बई से नगर पार्षद जार्ज फर्नाडिस को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने महाबली एस. के. पाटिल के विरुद्ध प्रत्याशी नामित किया। पाटिल तब इन्दिरा गांधी काबीना में वरिष्ट मंत्री थे और मुम्बई के बेताज बादशाह कहलाते थे। मृणाल गोरे जीजान से जुट गयीं और जार्ज फर्नाण्डिस जीत गये। टाइम्स का रिपोर्टर होने के नाते मैं इस युगान्तकारी घटना का साक्षी था। अगली घटना थी सिन्ध सीमा पर बसे गुजरात के जिले कच्छ की, जहां भारतीय भूभाग कंजरकोट तथा छाद बेट को इन्दिरा गांधी ने पाकिस्तान को सौंप दिया था। इस निर्णय के विरुद्ध लड़ने और जेल जाने वाले अग्रणियों में मृणाल गोरे थीं। बाद में भारतीय जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी, प्रजासोशलिस्ट पार्टी के नाथ पई, संसोपा के राज नारायण और जार्ज फर्नाण्डिस भी आये। अकेली महिला सत्याग्रही उस वीरान रेगिस्तानी इलाके में अन्तिम गांव खावड़ा से पाकिस्तान की सीमा की ओर कूच करने वालीएक वीरांगना थीं। रणचण्डी का रूप धारण कर भारतमाता की भुजा का अंगभंग रोकने हेतु वह तपती धुप में रेगिस्तान में जेल गईं।
मृणाल गोरे के चले जाने से विद्रोह की वाणी रुद्ध हो गई। प्रतिरोध का पर्याय खो गया।
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