तरू की पुकार
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माना कि मैं इन्सान नहीं
पर धरणी की सन्तान हूँ मैं।
समझे न कोई पीर मेरा,
पर जीव-जगत ही मीत मेरा।
कन्द-मूल औ अन्न-धान्य से,
क्षुधा तृप्त कर दंभ करूँ।
मंजुल पुष्प, कोमल शाखा से,
सबके मन को मुग्ध करूँ।
कभी सहूँ इठलाती बयार,
या भरी दुपहरी तेज मन्दार।
कभी कौमुदी की शीतलता,
कभी परे ओले बेशुमार।
कहीं वसुंधरा का चीर बनूँ,
तो कहीं गिरि का परिधान।
कहीं नीर में जलज बनूँ,
वृंदा बन पाऊँ सम्मान।
सघन छाया औषधि बन,
नित करूँ नव जीवन प्रदान।
मेरी रक्षा कर, रहो सुरक्षित,
मैं ही हूँ पर्यावरण की जान।
-स्वधा सिंह
*कवयित्री मानविकी में स्नातकोत्तर, कैरियर काउंसलर और पर्यावरण प्रेमी हैं। स्वतंत्र लेखन के माध्यम से वह अपने विचारों को व्यक्त करती रहती हैं।
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